Saturday 3 April 2021

ढेर

 ढेर


सभी कहते हैं कि रिश्ते बनाना, और रिश्ते निभाना, दो विभिन्न बातें हैं। पहला है सबसे सरल, यकायक ही हो जाता है, परंतु जो दूसरा पहलू है, निभाने का, साथ का, एक दूसरे के संग अनायास ही बहते चले जाना, हाँ ये कुछ कला सी मालूम होती है। इसमे प्रेम, समझ, सम्मान, अपनापन, देख-भाल, अपेक्षाएँ, निराशाएँ और उनको अनदेखा करना, इत्यादि सभी का मेला जोला समीकरण है। इन्हीं के संतुलन की खाद से, एवं समय समय पर वार्तालाप के जल से सींचने से हमारे रिश्तों के पौधों पनपते रहते हैं । जिस प्रकार बाग़बानी एक कौशल है, उस प्रकार ही ये भी एक हुनर है: रिश्तों और उनके दरमियान गर्माहट बनाये रखना, वरना या तो वो पौधे सूख के मुर्झा जाते हैं या तो वो एक आर्टिफिशियल प्लांट बनकर रह जाते हैं हमारे जीवन मे ।



मैंने महसूस किया है कि इस सफ़र मे हम कई बार जिन छोटे छोटे वृत्तांत या एहसास, जो हमारे अनुकूल न हो, उन्हें नज़रंदाज़ तो कर देते हैं पर उन सब काग़ज़ों को फाड़कर, उन्हें मसल कर, हम अपने आस पास ही किसी कूड़ेदान मे फेंकते जाते हैं। ये ढेर जमा होते जाता है कहीं । हम आगे बढ़ते जाते हैं बिल्कुल अंजान इस बात से कि वो कूड़ेदान कहीं और नहीं हमारा अवचेतन ही है। इल्म तब होता है जब अचानक ही बस एक और काग़ज़ का टुकड़ा, उस ढेर को ताश के महल के समान डावाँडोल करने के लिए काफ़ि होता है। एक सीमा के बाद, हमेशा की ही तरह, कोई छोटी मग़र बड़ी बात, उस ढेर को ढहा कर पिछले सभी बीते असहज एहसासों को हमारे सामने लाकर खड़ा कर देती है । 


एक छोटी सी बात, एक पुराना रिश्ता, एक ढेर, कई एहसास, और एक और पौधा या तो मरने की कगार पर आ जाता है या फ़िर आर्टिफिशियल प्लांट बन कर रह जाता है!