Tuesday 7 December 2021

The Mortal Life

 Yes. 

Life does end. 


But is this something to be worried about? I think this truth howsoever claimed as bitter, is the sweetest of all.


Isn't an inch closer to death every moment an inch more opportunity to live! 

 

It is the panacea for all our possible distresses. As Kabir hails in one of his dohas, "माटी कहे कुम्हार से,तु क्या रौंदे मोय। इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय" (Maatee kahe kumhaar se, Tu kya raunde moy. Ik din aisa aaega, main Raundoongee toy). Meaning, the clay scoffs the potter of his efforts to trample it, by revealing that a day shall come when the clay shall trample his existence and amalgamate him into itself. 


So while always keeping ourselves encircling around the big and small worries, we are oblivious of how ephemeral this life itself is. Think of our Indus Valley Civilization ancestors. They got buried with their wealthy possessions in the hope that they were immortal. Yet, all their efforts to accumulate them seem to be in vain. These palaces, these tombs, these cenotaphs of the kings and dynasties are all nothing but myth busters of the illusion of eternity. So what is the most quintessential part of living? Just single word: Living. Yes. To live, every moment in it's entirety. Just to be. To be. To be there. To be you. As simple as that. The remedy is no colossal secret yet incredible. It lies within. You are mortal. So enough of this fret, this franticness, these disappointments. They are just some tiny shades of grey in this gigantic colourful painting of life. 


Do you think rivers weep? Of course not! Let us be river. Flowing along the slopes yet carving our own way out whenever the paths get blocked by hurdles with all the patience and vigour but without despondence. Let us be birds, gliding vivaciously in the wind. Howsoever foggy it may seem my friend, the sun is just beneath the horizon waiting to sparkle you with it's radiance. All you need is a little faith in sunshine. In your shine. 


Life is beautiful! 


- आकांक्षा जैन


Saturday 3 April 2021

ढेर

 ढेर


सभी कहते हैं कि रिश्ते बनाना, और रिश्ते निभाना, दो विभिन्न बातें हैं। पहला है सबसे सरल, यकायक ही हो जाता है, परंतु जो दूसरा पहलू है, निभाने का, साथ का, एक दूसरे के संग अनायास ही बहते चले जाना, हाँ ये कुछ कला सी मालूम होती है। इसमे प्रेम, समझ, सम्मान, अपनापन, देख-भाल, अपेक्षाएँ, निराशाएँ और उनको अनदेखा करना, इत्यादि सभी का मेला जोला समीकरण है। इन्हीं के संतुलन की खाद से, एवं समय समय पर वार्तालाप के जल से सींचने से हमारे रिश्तों के पौधों पनपते रहते हैं । जिस प्रकार बाग़बानी एक कौशल है, उस प्रकार ही ये भी एक हुनर है: रिश्तों और उनके दरमियान गर्माहट बनाये रखना, वरना या तो वो पौधे सूख के मुर्झा जाते हैं या तो वो एक आर्टिफिशियल प्लांट बनकर रह जाते हैं हमारे जीवन मे ।



मैंने महसूस किया है कि इस सफ़र मे हम कई बार जिन छोटे छोटे वृत्तांत या एहसास, जो हमारे अनुकूल न हो, उन्हें नज़रंदाज़ तो कर देते हैं पर उन सब काग़ज़ों को फाड़कर, उन्हें मसल कर, हम अपने आस पास ही किसी कूड़ेदान मे फेंकते जाते हैं। ये ढेर जमा होते जाता है कहीं । हम आगे बढ़ते जाते हैं बिल्कुल अंजान इस बात से कि वो कूड़ेदान कहीं और नहीं हमारा अवचेतन ही है। इल्म तब होता है जब अचानक ही बस एक और काग़ज़ का टुकड़ा, उस ढेर को ताश के महल के समान डावाँडोल करने के लिए काफ़ि होता है। एक सीमा के बाद, हमेशा की ही तरह, कोई छोटी मग़र बड़ी बात, उस ढेर को ढहा कर पिछले सभी बीते असहज एहसासों को हमारे सामने लाकर खड़ा कर देती है । 


एक छोटी सी बात, एक पुराना रिश्ता, एक ढेर, कई एहसास, और एक और पौधा या तो मरने की कगार पर आ जाता है या फ़िर आर्टिफिशियल प्लांट बन कर रह जाता है! 

Sunday 7 February 2021

बात

 



बात। वार्तालाप। 


बात क्या है? बात यही तो है कि हम बात ही नहीं करते हैं। हमारी सभ्यता तो मानो बात करना भूल ही गई हो। हम तो बस या कह रहे होते हैं, या आरोप लगा रहे होते हैं, या आघात हो रहे होते हैं, या पूर्वाग्रही हो  रहे होते हैं। वार्तालाप कहने को तो बहुत छोटी सी बात है, सिर्फ आदान प्रदान ही तो है, विचारों का। मगर, यही बात तो सबसे बड़ी बात है जो होती ही नहीं। जिसके अलावा सब है। संवाद लापता है।

लोग कहते हैं बातों मे ही बातों का समाधान है, बात से ही हल है। मगर इस तेज़ व तंग युग मे, जहाँ हमें बात पहुँचाने की इतनी जल्दी हो गयी है, कि हम ने सुनना ही बंद कर दिया। हम बस कह देते हैं। कभी व्हाट्सप् के स्टेटस से, या ट्वीट से, या फेसबुक इंस्टाग्राम की स्टोरी से।

सुनकर समझना तो कोसों दूर की बात है, हम तो सुनने मे भी विश्वास नहीं रखते अब। हम तो मानो ठान बैठे हैं कि इन आरोप प्रत्यारोप से ही, पक्षों मे बटकर ही, हम अपना पक्ष रख पाएंगे।
अगर सफ़ेद और काली ही है दुनिया, इस निष्कर्ष पर आ ही चुके हैं, तो फिर किस बात पर बात की जाए। फ़िर काहे की बात, कैसी बात। तुम ग़लत, मैं सही, बस। बात ख़त्म!



चाहे वो निजी रिश्तों मे बात हो ,समाज की हो, विचारधारा की हो, राजनीतिक हो। बात निर्पक्ष रहने की नहीं है, बात है पक्षों को सुन पाने की, समझ पाने की, हल की राह पर चल सकने की। समानांतर रेखाओं के बजाए अधिव्यापन खोजने की। अगर हम सिर्फ़ कहने के लिए ही सुनेंगे, सुनने के लिए नहीं, तो फ़िर कैसे सुनेंगे?सुन पाएंगे? 

अगर नहीं सुनेंगे तो सहमत या असहमत कैसे होंगे। अंग्रेज़ी मे एक वाक्यांश है, "अग्री टू डिसग्री" अर्थात "असहमति के लिए सहमति"। कुछ बातों में मतभेद  निश्चित हैं, मगर सामंजस्य व अनुकल्प पर हमेशा पहुँचा जा सकता है। शायद ऐसे ही तो समाधान पर पहुंचा जाता है। कुछ बातें हम समझ ले, कुछ आप समझ जाएँ। यही तो समझ है!

शायद तभी कुछ रिश्ते उम्र भर एक साथ रहने पर भी मुकम्मल नहीं हो पाते हैं, चाहे वो एक बेटे और पिता के बीच हो,या पति पत्नी जो एक छत के नीचे उम्र दर साथ रहने के बावजूद भी मुमकिन है की कभी बात ही न कर पाए हों। शायद इसीलिए कई बार सब सही होते हुए भी सही नही लगता और बात तलाक़ तक पहुँच जाती है। शायद इसीलिए विभाजित हो जाता हैं हम। जैसे बचपन मे खेलते वक़्त टोली बाँट लिया करते थे, ये तेरी तरफ़ ये मेरी तरफ़। ठीक उसी तरह, हमारा समाज भी अनभिज्ञ रूप से ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है। विश्व को सीमाओं मे तो हम कब का विभाजित कर चुके हैं, अब पुनः विभाजन करते जा रहे हैं। गुट्टो मे। हर रोज़। अंधकार और प्रकाश मे, पूंजीवादी और समाजवादी  मे, भक्त और द्रोही मे, रूढ़िवादी और उदारवादी मे आदि-आदि। ये मापदंड कहने को तो एक समुद्र के दो छोर हैं, मगर शायद इनसे ही उद्गम होता है कोई नदी का, कोई प्रवाह संभव है। बस बातों की हवा की ज़रूरत है । ज़रा सोचिये। ज़रा सुनिये। ज़रा बात करिये।