Sunday 7 February 2021

बात

 



बात। वार्तालाप। 


बात क्या है? बात यही तो है कि हम बात ही नहीं करते हैं। हमारी सभ्यता तो मानो बात करना भूल ही गई हो। हम तो बस या कह रहे होते हैं, या आरोप लगा रहे होते हैं, या आघात हो रहे होते हैं, या पूर्वाग्रही हो  रहे होते हैं। वार्तालाप कहने को तो बहुत छोटी सी बात है, सिर्फ आदान प्रदान ही तो है, विचारों का। मगर, यही बात तो सबसे बड़ी बात है जो होती ही नहीं। जिसके अलावा सब है। संवाद लापता है।

लोग कहते हैं बातों मे ही बातों का समाधान है, बात से ही हल है। मगर इस तेज़ व तंग युग मे, जहाँ हमें बात पहुँचाने की इतनी जल्दी हो गयी है, कि हम ने सुनना ही बंद कर दिया। हम बस कह देते हैं। कभी व्हाट्सप् के स्टेटस से, या ट्वीट से, या फेसबुक इंस्टाग्राम की स्टोरी से।

सुनकर समझना तो कोसों दूर की बात है, हम तो सुनने मे भी विश्वास नहीं रखते अब। हम तो मानो ठान बैठे हैं कि इन आरोप प्रत्यारोप से ही, पक्षों मे बटकर ही, हम अपना पक्ष रख पाएंगे।
अगर सफ़ेद और काली ही है दुनिया, इस निष्कर्ष पर आ ही चुके हैं, तो फिर किस बात पर बात की जाए। फ़िर काहे की बात, कैसी बात। तुम ग़लत, मैं सही, बस। बात ख़त्म!



चाहे वो निजी रिश्तों मे बात हो ,समाज की हो, विचारधारा की हो, राजनीतिक हो। बात निर्पक्ष रहने की नहीं है, बात है पक्षों को सुन पाने की, समझ पाने की, हल की राह पर चल सकने की। समानांतर रेखाओं के बजाए अधिव्यापन खोजने की। अगर हम सिर्फ़ कहने के लिए ही सुनेंगे, सुनने के लिए नहीं, तो फ़िर कैसे सुनेंगे?सुन पाएंगे? 

अगर नहीं सुनेंगे तो सहमत या असहमत कैसे होंगे। अंग्रेज़ी मे एक वाक्यांश है, "अग्री टू डिसग्री" अर्थात "असहमति के लिए सहमति"। कुछ बातों में मतभेद  निश्चित हैं, मगर सामंजस्य व अनुकल्प पर हमेशा पहुँचा जा सकता है। शायद ऐसे ही तो समाधान पर पहुंचा जाता है। कुछ बातें हम समझ ले, कुछ आप समझ जाएँ। यही तो समझ है!

शायद तभी कुछ रिश्ते उम्र भर एक साथ रहने पर भी मुकम्मल नहीं हो पाते हैं, चाहे वो एक बेटे और पिता के बीच हो,या पति पत्नी जो एक छत के नीचे उम्र दर साथ रहने के बावजूद भी मुमकिन है की कभी बात ही न कर पाए हों। शायद इसीलिए कई बार सब सही होते हुए भी सही नही लगता और बात तलाक़ तक पहुँच जाती है। शायद इसीलिए विभाजित हो जाता हैं हम। जैसे बचपन मे खेलते वक़्त टोली बाँट लिया करते थे, ये तेरी तरफ़ ये मेरी तरफ़। ठीक उसी तरह, हमारा समाज भी अनभिज्ञ रूप से ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है। विश्व को सीमाओं मे तो हम कब का विभाजित कर चुके हैं, अब पुनः विभाजन करते जा रहे हैं। गुट्टो मे। हर रोज़। अंधकार और प्रकाश मे, पूंजीवादी और समाजवादी  मे, भक्त और द्रोही मे, रूढ़िवादी और उदारवादी मे आदि-आदि। ये मापदंड कहने को तो एक समुद्र के दो छोर हैं, मगर शायद इनसे ही उद्गम होता है कोई नदी का, कोई प्रवाह संभव है। बस बातों की हवा की ज़रूरत है । ज़रा सोचिये। ज़रा सुनिये। ज़रा बात करिये।




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